दुनिया मेरे आगे: अहंकार की परिणति ही विनाश है
और जो दो बच्चियाँ हैं जो पढ़ रही हैं, उनको भी मेरा कहना यही है कि शादी करना हो तो करना, अन्यथा मुझे कोई दिक्कत नहीं है। मेरी पहले भी ऐसी सोच नहीं थी की दहेज दे कर या विशेष चर्चा करके शादी करना चाहूँगा। पढ़ाई के लिए मैं check here तैयार हूँ कि कहाँ तक जा सकते हो?
आचार्य: ‘कै’ से प्यार है बहुत ज़्यादा। उसको ‘मैं’ बनाने की पुरज़ोर कोशिश चल रही है।
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तमसा में सुविधा हो जाती है ख़ुद को ये प्रवंचना दिए रहने में कि सब ठीक चल रहा है।
तो पहली बात तो ये है कि सही दिशा जाने की कामना है और दूसरी बात उसमें ये कि सही दिशा जाना है, उधर अब अपने बूते जाया नहीं जा रहा — ये प्रार्थना है। ’अब अपने बूते जाया नहीं जा रहा’, जिसने ये स्वीकार कर लिया वो प्रार्थी हो गया।
सच्ची प्रार्थना में दो बातें होती हैं। पहली बात, जिधर को जाना है, अर्थात् जो मांग रहे हो, जो कामना है, वो सही होनी चाहिए। और सही प्रार्थना यही होती है कि मैं न रहूँ। अभी रामप्रसाद बिस्मिल जी की हम पंक्तियाँ पढ़ रहे थे न उस दिन कि 'मैं न रहूँ बस मैं यही चाहता हूँ', यही प्रार्थना है।
' (आँख बन्द करके मंत्रों के उच्चारण का अभिनय करते हुए) ऐसे कुछ नहीं होता, ये बेकार की बात है।
सिखाने की कोशिश की होगी कि सफलता पाकर घमंड नहीं करना चाहिए अपितु और अधिक नम्र
अरे! मजबूरियाँ बहुत होती हैं। आचार्य जी, आप समझते नहीं। मैं तो क्या करूँ, इत्ता सा हूँ, इत्ता सा, इत्ता सा', तो फिर आपके जीवन में कोई चमत्कार नहीं आने वाला। और अगर जीवन में चमत्कार नहीं है तो जीवन जीने लायक नहीं है।
आचार्य: हाँ, पर तुम ये भूल जाते हो कि यहाँ पर भी लोग तुम्हें परेशान इसलिए कर पाते थे क्योंकि तुम परेशान होने को तैयार ही नहीं इच्छुक थे। ये तुम्हारे पीछे अभी पड़ा हुआ था, “दारु पी, दारु पी, दारु पी चल आज, सैटरडे नाईट (शनिवार रात) है”। पड़ा था न?
बात ये है कि ‘मैं’ वो है ही नहीं। वो ‘कै’ है। तो ये ‘कै’ अगर हटेगा, ‘कै’ दिक़्क़त है, हमें क्या लग रहा है? कि दिक़्क़त ‘मैं’ है। ‘मैं’ नहीं है दिक़्क़त, दिक़्क़त क्या है?
प्र: तो इसका अर्थ हुआ कि जंगल में प्राप्त होने वाली शांति एक अल्पकालिक राहत मात्र है?
आचार्य प्रशांत: होता है। अहम् के साथ भी तुम इन तीनों गुणों को जोड़कर देख सकते हो। प्रकृति के गुण हैं, अहम् पर ही लागू होते हैं।